Tuesday, October 14, 2025
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: संगठित, अनुशासित और आत्मविश्वासी भारत का प्रतीक

पवन वर्मा
वर्ष 1925 में विजयादशमी के दिन डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा नागपुर में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज अपने 100 वें वर्ष में प्रवेश कर चुका है। भारत के आधुनिक इतिहास में यदि किसी संगठन ने सामाजिक राष्ट्रीय जीवन को गहराई तक प्रभावित किया है, तो वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ही है। विजयादशमी का पर्व, परंपरागत रूप से सत्य की विजय, अनुशासन और पराक्रम का प्रतीक माना जाता है और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने इसे अपने अस्तित्व और दर्शन के आधार रुप में स्वीकार किया है। इस वर्ष की विजयादशमी संघ की शताब्दी यात्रा के इतिहास और भविष्य दोनों का दर्पण है।
स्थापना का इतिहास
बीसवीं शताब्दी का भारत गहन संक्रमण के दौर से गुजर रहा था। अंग्रेजी दासता, सामाजिक विखंडन, सांप्रदायिक मतभेद और परंपरागत हीनभावना से ग्रस्त समाज को एक संगठित, अनुशासित और आत्मविश्वासी राष्ट्रत्व की आवश्यकता थी। डॉ. हेडगेवार ने इस आवश्यकता को पहचाना और 1925 में विजयादशमी (दशहरा) को कुछ स्वयंसेवकों के साथ संघ की नींव रखी। उनका विश्वास था कि स्वतंत्र भारत तभी टिकाऊ और सशक्त होगा, जब उसके पास चरित्रवान, अनुशासित और राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत नागरिकों का संगठन होगा। संभवत: इसी दृष्टि से संघ की स्थापना का दिन विजयादशमी चुना गया । एक ऐसा पर्व जो बुराई पर अच्छाई की विजय और सामाजिक एकजुटता का प्रतीक है।
संघ की शाखा और अनुशासन
संघ की सबसे बड़ी विशेषता उसकी शाखा प्रणाली है। प्रतिदिन मैदान में लगने वाली शाखाएँ केवल शारीरिक व्यायाम का माध्यम नहीं, बल्कि सांस्कृतिक प्रशिक्षण, अनुशासन निर्माण और राष्ट्रभावना के जागरण का साधन हैं। शाखा में प्रार्थना, खेल, गीत, बौद्धिक चर्चा और सामूहिक अनुशासन,ये सब मिलकर व्यक्ति को निजी अहंकार से मुक्त कर समाज के लिए जीने की प्रेरणा देते हैं।
विजयादशमी और संघ का संबंध
संघ के लिए विजयादशमी केवल धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि उसकी आत्मा का उत्सव है। हर वर्ष विजयादशमी पर शस्त्र-पूजन और पथ-संचलन का आयोजन होता है। शस्त्रपूजन, जो परंपरा से शक्ति और धर्म की रक्षा का प्रतीक रहा है, संघ में अनुशासन और राष्ट्ररक्षा की भावना से जुड़ता है। विजयादशमी पर संघ के सरसंघचालक का वार्षिक विजयादशमी भाषण संगठन की नीतियों, प्राथमिकताओं और समसामयिक चुनौतियों पर मार्गदर्शन प्रदान करता है। इस भाषण को केवल संघ ही नहीं, बल्कि पूरे देश में गम्भीरता से सुना जाता है।
सेवा और संगठन का सामंजस्य
शताब्दी वर्ष तक की संघ की यात्रा केवल संगठन के विस्तार की नहीं, बल्कि समाज-सुधार और राष्ट्रनिर्माण की कथा भी है। स्वतंत्रता संग्राम में प्रत्यक्ष राजनीतिक आंदोलन में भले ही संघ की भागीदारी सीमित रही, लेकिन हजारों स्वयंसेवकों ने व्यक्तिगत रूप से आज़ादी की लड़ाई में योगदान दिया। समाजसेवा के क्षेत्र में संघ ने हमेशा अग्रणी भूमिका निभाई है। बाढ़, भूकंप, अकाल या महामारी,हर आपदा में स्वयंसेवकों ने सबसे आगे खड़े होकर कार्य किया। सांस्कृतिक पुनर्जागरण में भी संघ ने भारतीय संस्कृति, परंपरा और गौरव को नए सिरे से आत्मसात करने का अभियान चलाया। संगठन का विस्तार आज इस रूप में दिखता है कि संघ से प्रेरित 36 से अधिक संगठन विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय हैं, जिनमें शिक्षा, श्रमिक, किसान, विद्यार्थी, महिला, आदिवासी, मीडिया और पर्यावरण सभी शामिल हैं।
दुनिया भर में फैला संघ
आज संघ केवल भारत तक सीमित नहीं रहा। अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और खाड़ी देशों तक इसकी शाखाएँ सक्रिय हैं। प्रवासी भारतीय समाज के बीच भारतीय संस्कृति और जीवन-मूल्यों का संवाहक बनकर संघ ने वैश्विक पहचान अर्जित की है।
सांप्रदायिकता और कट्टरता के आरोप
इतना विशाल संगठन होने के कारण संघ आलोचनाओं और विवादों से भी जुड़ा रहा है। उस पर सांप्रदायिकता और कट्टरता के आरोप लगाए जाते रहे हैं। आपातकाल के दौरान संघ पर प्रतिबंध लगा और हजारों स्वयंसेवक जेल गए। वर्तमान समय में भी संघ पर ऐसे आरोप लगाए जाते हैं। फिर भी यह स्वीकार करना होगा कि संघ की निरंतरता, अनुशासन और सेवा-भावना ने उसकी आलोचनाओं को समय-समय पर मुंहतोड़ जवाब दिया है।
सामर्थ्य और आत्मरक्षा का संदेश
हमारे समाज में विजयादशमी केवल रावण-वध की कथा भर नहीं है। यह अन्याय और अहंकार के विरुद्ध संघर्ष का प्रतीक है। संघ ने इसे अपने संगठन की आत्मा बना दिया। शस्त्र-पूजन से सामर्थ्य और आत्मरक्षा का संदेश निकलता है। पथ-संचलन से एकता और अनुशासन का प्रदर्शन होता है। विजयादशमी भाषण से दिशा और मार्गदर्शन का सूत्र मिलता है। इस प्रकार विजयादशमी और संघ का रिश्ता केवल तिथि या परंपरा का नहीं, बल्कि विचार और दर्शन का रिश्ता है।
संघ के सौ साल का महत्व
100 वर्ष किसी भी संगठन के लिए अनुभव, आत्ममंथन और नए संकल्प का अवसर होते हैं। आज यह प्रश्न है कि आने वाले सौ वर्षों में उसकी दिशा क्या होनी चाहिए। क्या वह केवल संगठन विस्तार तक सीमित रहेगा या समाज में समरसता, न्याय और विकास की ठोस पहल करेगा? क्या वह भारतीय संस्कृति को केवल परंपरा तक बाँध देगा या उसे आधुनिक युग में प्रासंगिक बनाने की भी कोशिश करेगा? संघ के लिए अब सबसे बड़ी चुनौती है समरस समाज का निर्माण, जिसमें जातिवाद और विभाजन की रेखाएँ मिटें। आर्थिक राष्ट्रवाद की दिशा में स्वदेशी और आत्मनिर्भर भारत को जीवन का हिस्सा बनाना उसकी प्राथमिकता होनी चाहिए। पर्यावरण और सतत विकास की दिशा में प्रकृति को पूज्य मानने वाली भारतीय परंपरा को व्यवहार में उतारना भी अनिवार्य है। वैश्विक नेतृत्व की दिशा में भारत को विश्वगुरु बनाने का सांस्कृतिक और नैतिक प्रयास संघ की अगली यात्रा का आधार होना चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शताब्दी और विजयादशमी, दोनों ही भारतीय समाज के लिए आत्मचिंतन और आत्मविश्वास का अवसर हैं। विजयादशमी का संदेश है बुराई पर अच्छाई की विजय, असत्य पर सत्य का पराक्रम और समाज की एकजुटता से राष्ट्र की शक्ति। संघ यदि आने वाले सौ वर्षों में इस संदेश को और अधिक समावेशी, प्रगतिशील और सार्वभौमिक रूप में समाज तक पहुँचा पाए, तो यह केवल एक संगठन की उपलब्धि नहीं होगी, बल्कि भारत की आत्मा का पुनर्जागरण कहलाएगा।

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