
मुंबई। बॉम्बे हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को मुंबई उपनगर के मानखुर्द में मानसिक रूप से विकलांग बच्चों के आश्रयगृह में 2012 में शराब और महिला नर्तकियों के साथ आयोजित नए साल की पार्टी मामले में दोषी अधिकारियों के खिलाफ अब तक कोई कार्रवाई न करने पर तीखी फटकार लगाई है। मुख्य न्यायाधीश आलोक अराधे और न्यायमूर्ति संदीप मार्ने की पीठ ने सोमवार को सुनवाई के दौरान इस बात पर आश्चर्य जताया कि जांच होने के बावजूद 12 वर्षों बाद भी कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की गई है। यह टिप्पणी सामाजिक कार्यकर्ता संगीता पुणेकर द्वारा 2014 में दायर जनहित याचिका (पीआईएल) पर सुनवाई के दौरान आई, जिसमें 31 दिसंबर, 2012 की उस शर्मनाक घटना का ज़िक्र किया गया था। याचिका के अनुसार, यह घटना एक 100 प्रतिशत राज्य-सहायता प्राप्त आश्रयगृह में हुई थी, जिसे बच्चों की सहायता सोसायटी (सीएएस) द्वारा संचालित किया जाता है और जहां उस समय 265 मानसिक रूप से विकलांग बच्चे रह रहे थे। आरोप है कि एक दानदाता द्वारा आयोजित इस पार्टी में शराब परोसी गई थी और महिला नर्तकियों पर पैसे उड़ाए गए थे, जब 26 मानसिक रूप से विकलांग लड़कियां और आश्रयगृह के अधिकारी मौके पर मौजूद थे। यह मामला करीब एक साल बाद तब उजागर हुआ जब कुछ कर्मचारियों ने सीएएस की गवर्निंग काउंसिल को पत्र लिखकर इस पर आपत्ति जताई। मामले में तब भी बाल कल्याण समिति और महिला एवं बाल कल्याण विभाग द्वारा जांच की गई थी, लेकिन कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई। सुनवाई के दौरान सरकारी वकील यह तक नहीं बता सके कि अब तक क्या कार्रवाई हुई है। मुख्य न्यायाधीश ने तीखे शब्दों में कहा, ऐसे संवेदनशील मामलों में भी अगर कोई कार्रवाई नहीं होती, तो आपको अपने अधिकारियों और खुद पर शर्म आनी चाहिए। क्या यही तरीका है जिसमें आप विकलांग बच्चों की सुरक्षा से जुड़े मामलों से निपटते हैं? कोर्ट ने यह भी कहा कि याचिका को और लंबित रखना अब किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं करेगा। हाई कोर्ट ने अब विकलांग व्यक्तियों के राज्य आयुक्त को निर्देश दिया है कि वे इस घटना की नई जांच छह सप्ताह में पूरी करें और दोषी अधिकारियों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए राज्य सरकार को एक विस्तृत रिपोर्ट सौंपें। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि तीन महीने के भीतर मामले की अनुपालन रिपोर्ट अदालत को सौंपी जानी चाहिए। मुख्य न्यायाधीश ने कहा, “इस प्रकार के गंभीर मामलों में समय पर और निर्णायक कार्रवाई आवश्यक है। न्याय में देरी, न्याय से वंचित करने के समान है।