
नई दिल्ली। विपक्षी गठबंधन के उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस बी सुदर्शन रेड्डी ने कहा कि देश में लोकतंत्र का अभाव बढ़ता जा रहा है और संविधान दबाव में है। नक्सलवाद के समर्थन के आरोपों को खारिज करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि यह उनका निजी निर्णय नहीं था, बल्कि सुप्रीम कोर्ट का सामूहिक फैसला था। सलवा जुडूम पर फैसले को लेकर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के आरोपों पर प्रतिक्रिया देते हुए रेड्डी ने कहा कि अगर गृह मंत्री ने वह 40 पन्नों का फैसला पढ़ा होता तो शायद वे ऐसा बयान नहीं देते। रेड्डी ने कहा कि उपराष्ट्रपति चुनाव उनके और सत्ताधारी राजग के सीपी राधाकृष्णन के बीच केवल व्यक्तिगत मुकाबला नहीं है, बल्कि यह दो अलग-अलग विचारधाराओं के बीच संघर्ष है। उन्होंने खुद को एक उदारवादी और लोकतांत्रिक सोच वाला व्यक्ति बताया और कहा कि यह चुनाव लोकतंत्र की दिशा तय करेगा। जातिगत जनगणना का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा कि संसद में व्यवधान भी लोकतांत्रिक विरोध का एक वैध तरीका है, हालांकि यह स्थायी हिस्सा नहीं बनना चाहिए। उन्होंने कहा कि पहले हम ‘डेफिसिट इकोनॉमी’ की बात करते थे, लेकिन अब ‘डेमोक्रेसी में डेफिसिट’ यानी लोकतंत्र की कमी है। भारत भले ही संवैधानिक लोकतंत्र बना हुआ है, लेकिन वह आज दबाव में है। संविधान पर चल रही बहस का स्वागत करते हुए उन्होंने कहा कि यह जरूरी है कि लोग समझें कि संविधान पर खतरा है या नहीं। रेड्डी ने कहा कि विपक्ष उन्हें उम्मीदवार बनाकर विविधता का प्रतिनिधित्व कर रहा है और यह सम्मान की बात है। उन्होंने कहा कि विपक्ष देश की लगभग 63–64 फीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व करता है, जो राष्ट्रीय एकता को भी दर्शाता है। उन्होंने खेद जताया कि आज सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच समन्वय की कमी है, जबकि पहले राष्ट्रीय मुद्दों पर दोनों पक्ष मिलकर काम करते थे। उन्होंने कहा कि उनकी संविधान की रक्षा करने की यात्रा एक जज के रूप में शुरू हुई थी और अब यदि उन्हें अवसर मिला, तो उपराष्ट्रपति पद पर रहते हुए भी वे यह जिम्मेदारी निभाते रहेंगे। रेड्डी ने कहा कि लोकतंत्र केवल व्यक्तियों के बीच टकराव नहीं है, बल्कि विचारधाराओं के बीच टकराव है, और काश सरकार और विपक्ष के बीच बेहतर संबंध होते।