Sunday, November 2, 2025
Google search engine
HomeLifestyleदृष्टिकोण: सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

दृष्टिकोण: सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

डॉ. सुधाकर आशावादी
देश में राष्ट्र के प्रति समर्पित संगठन के रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। इतिहास साक्षी है कि राष्ट्र पर आने वाली किसी भी विपदा में संघ के कार्यकर्ताओं ने बढ़ चढ़कर समस्या के समाधान हेतु स्वयं को समर्पित किया है। जहाँ तक संघ की विचारधारा का प्रश्न है, संघ में जातीय संकीर्णता लेशमात्र भी नहीं है। सामाजिक समरसता उसकी कार्यशैली में स्पष्ट दिखाई देती हैं। जहाँ संघ से सम्बंधित कार्यक्रमों में किसी भी प्रकार का जातीय भेद नजर नहीं आता। बहरहाल कुछ राजनीतिक तत्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध की मांग कर रहे हैं। वे ऐसा क्यों कर रहे हैं , यह बखूबी समझा जा सकता है। देश में जाति और धर्म के नाम विघटनकारी तत्वों की मंशा संघ कार्यकर्ताओं के कारण पूरी नहीं हो पा रही है, तो अवश्य ही ऐसी शक्तियां राष्ट्र के प्रति समर्पित संघ का विरोध करने पर उतारू हैं। कहना गलत न होगा, कि एक समय सत्ता सुख भोग चुके अनेक वंशवादी नेता और परिवार अस्तित्व संकट से जूझ रहे हैं। जन विकास के मुद्दे उनके पास नहीं हैं। ऐसे में जातीय संकीर्णता, क्षेत्रवाद और धर्म आधारित विघटनकारी एजेंडा देश भर में चलाना उनकी मज़बूरी है, सो कभी वह पिछड़ा कार्ड खेलते हैं, कभी दलित कार्ड। कभी जाति आधारित आरक्षण की सीमा को बढ़ाकर ऐसे तत्व राष्ट्र के विकास को अवरुद्ध करने का प्रयास करते हैं तथा जातीय जनगणना की बात करके अपना जातीय वोट बैंक बनाने की क़वायद करते हैं। ऐसे तत्व यह समझते हैं कि आम आदमी को जातीय कार्ड खेलकर वैचारिक बंधुआ बनाया जा सकता है और जाति कार्ड खेलकर उनका मत एवं समर्थन प्राप्त किया जा सकता है। वे यह भूल जाते हैं, कि कोई भी जाति कभी भी किसी व्यक्ति या विचार की बंधुआ नहीं हो सकती। यदि जातियां पूरी तरह से बंधुआ होती, तो सभी राजनीतिक दलों में सभी जातियों के प्रतिनिधि न होते। जातीय गणना के सम्बन्ध में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर कार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने स्पष्ट किया है कि संघ जाति आधारित जनगणना के विरुद्ध नहीं है, लेकिन जनगणना राजनीतिक रूप से प्रेरित नहीं होनी चाहिए। जातीय जनगणना का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों की पहचान करके उनकी प्रगति करना होना चाहिए। मेरा मानना है कि राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में जातीय अलगाव बाधक है। जाति आधारित व्यवस्था राजनीतिक दलों की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में सहायक तो हो सकती है, लेकिन इतिहास साक्षी है कि राष्ट्र के विकास में यह अवरोधक ही है। विश्व में शायद ही ऐसा कोई देश हो, जहां जाति आधारित व्यवस्था हो। ऐसे में सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया की भावना से विश्व के कल्याण की कामना करने वाले देश में जाति जनगणना यदि जरुरी हो, तभी कराई जाए, लेकिन उसके उद्देश्य पिछड़ों व साधन हीन व्यक्तियों का उत्थान करना हो, न कि राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति हेतु विघटनकारी तत्वों के मंसूबों को पूरा करना।

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -
Google search engine

Most Popular

Recent Comments