Friday, November 7, 2025
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संपादकीय: लोकतंत्र या पूंजीतंत्र का खेल?

दिल्ली हो या बीजेपी शासित कोई भी राज्य, केवल गरीबों के झोपड़े तोड़कर उसे धनी मित्रों को मुफ्त उपहार देने की लगातार कोशिश की जा रही है। चालीस-पचास साल पहले बनी दुकानें तोड़ी जा रही हैं, लोगों की रोजी-रोटी छीनी जा रही है, बिना वैकल्पिक आवास और दुकान दिए। अडानी को एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी धारावी दी गई। छत्तीसगढ़ में हसदेव जंगल साफ कर पर्यावरण को नुकसान ही नहीं, आदिवासियों का हक भी मारा गया। बिहार में दस लाख पेड़, जिनमें लाखों आम के पेड़ जो गरीबों का जीवनयापन का साधन था, छीनकर 1030 एकड़ अडानी को दिए गए। असम में तीन हजार बीघे दिए गए। यह सब आरएसएस के एजेंडे को पूरा किया जा रहा है- 95 प्रतिशत लोगों की जमीन-संपत्ति छीनकर कंगाल गुलाम बना लो। न्याय और कानून भी धनवान, गरीब, हिंदू, मुस्लिम देखकर दिया जा रहा है। न्यायाधीशों के परिजनों-रिश्तेदारों के यहां जांच एजेंसियां भेजकर ब्लैकमेल किया जा रहा है। पूंजीपति द्वारा सुप्रीमकोर्ट के जस्टिस को 9 करोड़ रुपए में खरीदकर हजारों करोड़ बचाने के भी आरोप लग चुके हैं। संविधान की शपथ लेकर भी आस्था के नाम पर फैसले दिए जा रहे हैं। बीजेपी सरकारें खुद मुख्तार बनकर बुलडोजर द्वारा तोड़फोड़ करके अन्याय ही नहीं कर रहीं, बल्कि न्यायालयों की उपयोगिता भी खत्म की जा रही है।
गरीब आदमी वर्षों तक जेल में सड़ता है, उसका ट्रायल ही नहीं किया जाता। अगर मुस्लिम हो, गरीब हो, तो उसे न्याय मिलना असंभव हो चुका है। सरकार प्रत्येक सरकारी संस्थान पर कब्जा कर चुकी है। चाहे आईटी हो या सीबीआई, ईडी और एनआईए, आरबीआई हो- सबको गुलाम बनाकर तानाशाही और लोकतंत्र विरोधी, संविधान विरोधी गतिविधियां चलाई जा रही हैं। यहां तक कि चुनाव आयोग को कानूनी संरक्षण देकर भस्मासुर बना दिया गया है, जो मनमाने तौर पर मताधिकार छीन रहा है। वोटर लिस्ट में SIR के बहाने मताधिकार छीनकर लोकतंत्र और संविधान में दिए गए मौलिक अधिकार खत्म किए जा रहे हैं। जैसा कि राष्ट्रपति ने खुद सीजेआई की उपस्थिति में कहा था कि गरीबों, आदिवासियों को बेकसूर होने के बावजूद जेल में रखा जाता है। उनकी जमानत इसलिए नहीं हो पाती क्योंकि वे जमानत राशि दे पाने में पूरी तरह असमर्थ होते हैं। बीजेपी शासित राज्यों में पुलिस बेलगाम हो गई है। किसी गरीब के घर में रात के समय घुसकर महिलाओं की इज्जत लूटी जा रही है। बेवजह गरीब ठेलेवालों, ट्रक ड्राइवरों से पांच-दस हजार हफ्ता मांगा जाता है और नहीं दे पाने के कारण उनके ठेले सामान सहित उलटकर नष्ट किए जा रहे हैं। जो पुलिस जनता की सुरक्षा के लिए है, वह जनता के लिए भक्षक का काम कर शोषण, दोहन और अन्याय-अत्याचार कर रही है। सरकार और पुलिस प्रशासन को कोर्ट की फिक्र नहीं। कोर्ट का आदेश अधिकारी नहीं मान रहे। जब सुप्रीमकोर्ट के आदेश को पलटकर सरकार मनमाने कानून बनाकर सुप्रीमकोर्ट की अहमियत खत्म कर रही है। डॉक्टर का मानसिक उत्पीड़न इतना किया गया कि आत्महत्या कर ले। अवैध बालू खनन की जांच के लिए जब एसडीएम जाता है तो उपमुख्यमंत्री फोन कर उसे धमकी देता है। पीएम कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार को दोषी ठहराने, हिंदू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद के अलावा कुछ भी बिना टेलीप्रॉम्पटर के एक शब्द भी बोल नहीं पाते। अनपढ़ होने के नाते, लेकिन जब टेलीप्रॉम्पटर बंद पड़ जाता है तो डीएम का ट्रांसफर कर दिया जाता है। अब अनपढ़-अज्ञान होने के लिए डीएम कैसे जिम्मेदार हो सकता है?
‘बेटी पढ़ाओ, डॉक्टर बनाओ, फिर उसकी बलि चढ़ाओ’- कैसा सिस्टम बना दिया गया है? चुनाव के समय बड़े-बड़े वादे, दावे क्यों किए जाएं जब उन्हें पूरा करने की मंशा ही नहीं हो? लगता है देश के लोगों को गरीब बनाने, किसानों से उनकी जमीन छीनने, छोटे दुकानदारों से उनके गाढ़े खून-पसीने की कमाई से बनी दुकानें तोड़ना ही सरकार का मकसद बन चुका है। नया कानून लाकर विपक्षी मुख्यमंत्री-मंत्रियों को बिना ठोस सबूत जांच एजेंसियों द्वारा जेल में ठूंस देना और तीस दिनों में ट्रायल शुरू नहीं होने देना ताकि तीस दिन जेल में रहने के कारण उसका पद छीन जाने की साजिश की जा चुकी है। एक दलीय राजतंत्र की व्यवस्था लागू की जा रही है। शिक्षक-विद्यार्थी जब प्रतियोगी परीक्षाओं के पेपर लीक कराकर करोड़ों रुपए कमा लेने के बाद परीक्षाएं निरस्त कर दी जाती हैं, नौकरियां नहीं दी जातीं, और व्यवस्था सुधार व पुनः परीक्षा की मांग करने पर छात्रों को पुलिस द्वारा लाठियों से पिटवाना ही सरकार का एक सूत्रीय कार्यक्रम चलाया जा रहा है। अगर मुस्लिम छात्र न्याय की मांग करे तो उसे आजीवन जेल में रखने का षड्यंत्र रचा जाता है, जैसा जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले छात्र शरजील के संदर्भ में देखा जा सकता है, जिसका ट्रायल आज तक शुरू नहीं किया गया। जेएनयू के छात्रों उमर खालिद, शरजील इमाम, गुलफिशा फातिमा और दूसरे छात्रों की जमानत याचिका की सुनवाई के समय का सच लोकतंत्र के मस्तक का कलंक बन गया है। सुप्रसिद्ध एडवोकेट और सांसद कपिल सिब्बल ने सुप्रीमकोर्ट के सामने तथ्य रखे, जिनके अनुसार 55 तारीखों पर जज छुट्टी पर चले गए। 26 तारीखें ऐसी डाली गईं जिनमें सुनवाई के लिए कोर्ट के पास समय ही नहीं रहा। 59 तारीखों पर स्पेशल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर ही कोर्ट में उपस्थित नहीं हुए- जानबूझकर ताकि सुनवाई टाली जाती रहे। अर्थात जानबूझकर 140 से अधिक सुनवाई सिर्फ सिस्टम की गैर जिम्मेदारी में बर्बाद की गई, जबकि दिल्ली पुलिस जो केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के अधीन आती है, जिसका नंगा नाच देश के लिए मेडल लाने वाली महिला पहलवानों के जंतर मंतर पर न्याय की मांग करते हुए पुलिसिया ज्यादती द्वारा देखा गया। आज भी कहती है, “आरोपी ट्रायल टाल रहे हैं।” कितना कुटिल मजाक है! दिल्ली पुलिस ने कुल 751 एफआईआर दर्ज कीं, जिनमें उमर खालिद का नाम केवल एक एफआईआर में ही दर्ज होने के बावजूद, एक ही केस में ट्रायल शुरू नहीं किया गया जबकि पांच साल से जेल में कैद रखा गया है। सच तो यह है कि दिल्ली पुलिस के पास उमर खालिद के खिलाफ पुख्ता सबूत ही नहीं है। पुलिस जानती है, ट्रायल शुरू होते ही ठोस सबूत के अभाव में उमर खालिद को सिर्फ जमानत ही नहीं मिल जाएगी, उसके विरुद्ध दायर मुकदमा भी खारिज हो जाएगा। लेकिन शाह का आदेश है। सारे मुस्लिम छात्र जमानत पर छूटने नहीं चाहिए। सवाल उठता है- देश में क्या मुस्लिम होना गुनाह है? क्या इसी बूते ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ का न्याय कहा जाएगा? जहां “उमर” नाम होने मात्र से अदालतें ठहर जाती हैं, मिलती है तो सिर्फ तारीख पर तारीख।

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