
अगले वर्ष यानी 2026 के मार्च–अप्रैल में असम विधानसभा के चुनाव होने हैं। 2 मई 2026 को वर्तमान विधानसभा का कार्यकाल खत्म होगा। जहरैली जुबां के लिए असम के मुख्यमंत्री हेमंत विश्व शर्मा आज से 42 साल पूर्व, असम के नेल्ली में हुए नरसंहार की रिपोर्ट विधानसभा में रखने का मन बना चुके हैं। इसके पूर्व 1986–1990 के दौरान एक बार सदन में यह कथित जांच रिपोर्ट पेश की गई थी, लेकिन हंगामे के चलते पास नहीं हो पाई थी। अप्रैल 1984 में रिपोर्ट सबमिट की गई थी। 1986 में असम गण परिषद ने चुनाव जीतकर सरकार बनाई थी। कहा जा रहा है कि विधानसभा लाइब्रेरी में रिपोर्ट की कोई कॉपी उपलब्ध नहीं है। उक्त कथित रिपोर्ट पर जांचकर्ता आयोग के अध्यक्ष तिवारी के हस्ताक्षर न होने के बहाने बीजेपी सरकार इतने वर्षों तक सदन में रिपोर्ट पेश न कर सकने का बहाना बता रही है। अब मुख्यमंत्री कहते हैं, हमने उस समय के अधिकारियों के इंटरव्यू और फोरेंसिक जांच के जरिए इसकी पुष्टि की है। सवाल यह है कि क्या 42 साल पूर्व रहे अधिकारी आज तक जीवित होंगे? दरअसल, सरकार- जुबिन गर्ग जैसे विख्यात गायक की हत्या से जनता का ध्यान हटाने के लिए झूठे गड़े मुर्दे उखाड़कर असम की शांति और सांप्रदायिक सौहाद्र को कुरेड़ा चाहती है जो गर्ग के निधन के बाद कम हो गया था। गर्ग के गीत हर वर्ग, संप्रदाय के लोग प्रेम से सुनते आए हैं। गर्ग की मृत्यु ने असमवासियों को झकझोर कर रखा था। आपसी सौहाद्र कायम हो चुका था। मतों के ध्रुवीकरण के लिए ही मुख्यमंत्री काल्पनिक आधार पर नेल्ली नरसंहार की कथित रिपोर्ट सदन में पेश करना चाहते हैं, ताकि बंगाली, हिंदू, मुसलमानों के प्रति बदले की भावना को चिनगारी लगाई जा सके और वोटों का ध्रुवीकरण कर फिर से सरकार बनाई जा सके। हाल ही में बोडोलैंड प्रादेशिक परिषद के चुनावों में मुसलमानों और ट्राइबल लोगों ने एकजुट होकर वोट दिया था, जिससे बीपीएफ ने 40 सीटों में से 28 सीटें जीत लीं। जबकि बीजेपी और उसकी सहयोगी यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल की सीटें 9 और 12 से घटकर 5 और 7 रह गईं। निश्चित ही बीजेपी एक बार फिर प्रदेश में कम्युनल बंटवारे का माहौल बनाना चाहती है। विपक्षी नेता कहते हैं कि समझ नहीं आ रहा कि इतनी पुरानी रिपोर्ट अब सार्वजनिक क्यों की जा रही है, जबकि ज़ख्म भर चुके हैं। जिसे कुरेदकर फिर से अलगाव की राजनीति करनी है। जुबिन गर्ग की मौत ने सभी धर्मों के लोगों में शोक पैदा कर एकजुटता मजबूर की; यही एकजुटता और सांप्रदायिक सौहाद्र मुख्यमंत्री और उनकी सरकार के लिए खतरे का कारण बन गया है। आरोप है कि विधानसभा चुनाव के पूर्व लोगों को भड़काने का कार्य किया जा रहा है। जब लोग नेल्ली क्षेत्र में सद्भावना के साथ जी रहे हैं, तब रिपोर्ट सदन में पेश कर उस सद्भावना को तोड़कर निजी स्वार्थ में प्रयोग क्यों किया जा रहा है?
तिवारी ने जांच कर 547 पेज की रिपोर्ट तैयार की थी; सैकड़ों गवाहों, अधिकारियों और हर पक्ष के लोगों के इंटरव्यू शामिल थे। उनमें अधिकांश गवाह और अधिकारी अब कालांतर में नहीं रहे होंगे। रिपोर्ट में AASU और ऑल असम गण संग्राम परिषद को हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था, पर रिपोर्ट में यह भी लिखा गया कि नेल्ली नरसंहार- जिसमें बंगाली हिंदू और मुसलमानों की संख्या 3,000 बताई गई थी। कुछ रिपोर्टों में 4,000 से 6,000 तक भी अंकित है। 1983 में छपी इंडिया टुडे की रिपोर्ट में लिखा गया था कि हिंसा से बचने के लिए सीआरपीएफ़ कैंपों की तरफ भाग रहे लोगों में महिलाएँ और बच्चे पीछे छूट गए थे, जिनका संहार कर दिया गया था। मरने वालों में 70 प्रतिशत महिलाएँ और 20 प्रतिशत बुज़ुर्ग बताए गए थे। उस समय की प्रेस रिपोर्टों के अनुसार, प्रत्यक्षदर्शियों ने कहा था कि हमलावरों का नेतृत्व AASU के नेताओं द्वारा किया जा रहा था; वे नहीं चाहते थे कि कोई मुसलमान-हिंदू जो पश्चिमी बंगाल या बांग्लादेश से आया हो बचा रहे। गाँव–गाँव जलाकर राख कर दिए गए, हमलावर गड़ासे, तीर लिए हुए भीड़ के रूप में आए और आते ही लोगों को काटना शुरू कर दिया। मज़ेदार बात यह है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने चुनाव कराकर शांति बहाल करने की कोशिश की। उन्होंने असम गण संग्राम परिषद पर आरोप लगाए कि वे वार्ता की मेज़ से भागे और हिंसक रास्ता अपनाया, जबकि राजीव गांधी के समय केंद्र सरकार और असम गण संग्राम परिषद के बीच समझौता हुआ था। इतनी पुरानी घटना के ज़ख्म कुरेदकर राजनीति की रोटी सेकने के लिए ही बीजेपी बुझ चुकी आग को कुरेदना चाहती है, क्योंकि उसे लगता है कि असम के आदिवासी, बंगला-भाषी हिंदू और मुसलमान एकजुट हो चुके हैं। जिससे विधानसभा चुनाव में हार का डर स्पष्ट दिख रहा है। इसलिए ध्रुवीकरण के लिए एक बार फिर असम को जलाने की कोशिश मणिपुर जैसी परिस्थितियाँ दोहरा सकती है।




