
शायद बेइमानों का प्रभाव हो, जो मुख्य बैंक एसबीआई. सहित कई अन्य बैंक आज़ादी दिवस से डिजिटल लेन-देन की 25,000 सीमा प्रतिदिन तय कर, इसके ऊपर के डिजिटल लेन-देन पर शुल्क वसूलने के साथ जी.एस.टी. लगाने की घोषणा शुरू की है। गरीब जनता को लूटने में सबसे आगे भारत का बड़ा बैंक स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया रहा है। मिनिमम बैलेंस के नाम पर गरीबों का सबसे ज़्यादा शोषण कर, अरबों रुपए से अपना घर भरने वाला एसबीआई बैंक गरीबों का खाता शून्य कर चुका है। तीन महीने में ट्रांजेक्शन नहीं होने पर भी गरीबों पर दंड लगाते हुए, उनका बहुत सारा खून चूस चुका है। आख़िर बैंक एक तरफ़ निर्णय अपने ग्राहकों पर कैसे थोप सकते हैं? बैंक अपने आप नियम-क़ानून बना लेते हैं, जो अन्याय और अत्याचार है खातेदारों पर। ये वही बैंक हैं, जिन्होंने पूंजीपतियों के हज़ारों करोड़ कर्ज़ के रुपए माफ़ किए थे। यही बैंक एक पूंजीपति के गिरते शेयर खरीदने का रिस्क लेकर नुकसान उठाया। शायद ये बैंक उस दिवालियेपन के धन को गरीब-मध्यम जनता से वसूल कर क्षति-पूर्ति करना चाहते हैं। ये बैंक नहीं चाहते कि बेईमान व्यापारियों, उद्योगपतियों के द्वारा किए गए डिजिटल पेमेंट से लगने वाली जी.एस.टी. का भार व्यापारियों पर पड़े। ये बैंक चाहते हैं कि बड़े व्यापारी करेंसी में व्यापार करें, सरकार के टैक्स खाकर कालाधन खूब जमा करें। कालाबाजारी करने और बेइमानी करने के लिए ही डिजिटल पेमेंट पर भार सहित जीएसटी लगाकर सरकार को खुश करना चाहते हैं कि देखो, हमने सरकार की जीएसटी बढ़ाने में कितना अमूल्य सहयोग किया है। इनके खाने और दिखाने के लिए अलग-अलग दांत हैं। गरीबों का पैसा किसी न किसी बहाने हड़पना इनकी नियत है। व्यापारियों का फ़ायदा पहुँचाना इनका मक़सद है, क्योंकि नकदी व्यापार करके जी.एस.टी. की चोरी भारी मात्रा में कर सकेंगे। उन्हें नकद व्यापार का हिसाब-किताब रखने की जहमत ही नहीं उठानी पड़ेगी। ये बैंक चोरी करना, टैक्स बचाना चाहकर वास्तव में सरकार को चुना लगा रहे हैं। डिजिटल लेन-देन मध्य वर्ग ज़्यादा करता है, समय के अभाव के कारण। उन मध्य वर्गीय जनता को लूटना इनका मक़सद है, क्योंकि देश का 90
प्रतिशत मध्यवर्गीय परिवार और युवा डिजिटल सुविधा का उपभोग करते हैं। इन बैंकों को अब उन्हें लूटने का मौक़ा मिल जाएगा, जिसका कोई हिसाब-किताब नहीं रखा जाएगा। मिसलेनियस खर्च बताकर गड़प किया जाएगा। भार मध्य वर्ग, नौकरीपेशा महिलाओं, छात्रों-छात्राओं, गृहणियों और बुजुर्गों को लूटने के लिए बैंकों ने एकतरफ़ा नियम बना लिए हैं, जो क़ानूनन ग़लत और असंवैधानिक है। बैंक सरकार नहीं होते। बैंक और क्लाइंट दोनों के अधिकार हैं। बिना क्लाइंट की सहमति के मनमाने नियम बना लेना बैंकों की तानाशाही है। ये वही बैंक हैं, जो मिनिमम बैलेंस की आड़ में करोड़ों गरीबों के अरबों रुपए खा चुके हैं। ऐसे में आरबीआई का यह कर्तव्य बन जाता है कि इन लुटेरे बैंकों को जेब में डाका डालने से रोकने के लिए कार्रवाई तुरंत कर आदेश दे कि डिजिटल पेमेंट को बढ़ावा देने ही नहीं, उन्हें पुरस्कृत करने की योजना बनाई जाए। ईमानदारों को लूटना, बेइमानों को संरक्षण देना अनुचित और ग़ैर-संवैधानिक है। साथ ही, केंद्र सरकार को, जो हमेशा लोगों से डिजिटल पेमेंट करने को प्रोत्साहित करती रहती है, उनका संरक्षण करने के लिए बैंक को सख़्त आदेश देना चाहिए कि डिजिटल पेमेंट करने वालों पर कोई भार बैंक नहीं डाले। अन्यथा समझा जाएगा कि खुद सरकार ईमानदारी नहीं चाहती, पारदर्शिता नहीं चाहती। फिर तरह-तरह के डिजिटल पेमेंट को अपने बनाए हुए माध्यम से पेमेंट करने को क्यों कहती है? अगर सरकार बैंकों की मनमानी लूट को नहीं रोकती, तो जीएसटी की चोरी को बढ़ावा देने का काम करेगी। जेबकतरे लोगों, छिनैतों को लूटमार करने को प्रोत्साहित करेगी। यह भी मान लिया जाएगा कि सरकार खुद डिजिटल लेन-देन की पारदर्शिता ख़त्म कर, कालाधन जमा करने वालों को खुली छूट दे रही है।